बज्मे उर्दू ने मनाया शिवपुरी दिवस
शिवपुरी शहर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था बज्मे उर्दू जो प्रत्येक माह के प्रथम शनिवार को काव्य गोष्ठी का आयोजन करती है 1 जनवरी 2022 का दिवस उसके लिए महत्वपूर्ण रहा। नव वर्ष के प्रथम दिवस के साथ – साथ शिवपुरी नामांकरण के 102 वें वर्ष पूर्ण होने का भी उसे अवसर प्राप्त हुआ। इस अवसर पर एक विचार गोष्ठी एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन बज्म के सचिव रफीक इशरत की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। इस कार्यक्रम का संचालन सत्तार शिवपुरी ने किया उन्होंने कहा, हिन्दू मुस्लिम गले मिले जो इक दूजे को भींच, इक मंदर ऐसा बनवादो शहर के बीचों बीच।
नगर के वरिष्ठ नाट्य निर्देशक एवम् साहित्यकार दिनेश वशिष्ठ ने शिवपुरी की विकास यात्रा के साथ साथ ऐतिहासिक घटनाओं और अनछुए पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला।
डॉ. मुकेश अनुरागी के आतिथ्य में संपन्न हुए इस कार्यक्रम में अनुरागी जी ने नव वर्ष की मुबारबाद देते हुए गीतांश का नव गीत पढ़ा, बदल गया बस दीवारों की ठुकी कील पर नया कलेंडर, लेकिन क्या बदला – बदला है अपने जीवन का कुछ मंजर।
वहीं सत्तार शिवपुरी ने कहा, बहुत खुश हुआ दिल जो ये ख्याल आया, नया साल आया, नया साल आया, नए साल के इब्तिदाई की महफिल, हरेक कौम से आये भाई की महफिल, ये सत्तार आया वो गोपाल आया।
गोष्ठी का आगाज डॉ. संजय शाक्य ने ये कह कर किया, ए खुदा है करम तेरा मुझ पर, मुफलिसी में भी शान बाकी है।
इन्हीं का एक शेर और देखें, ना यहां के लिऐ ना वहां के लिऐ, है सदाकत तो दोनों जहां के लिऐ।
हास्य व्यंग के कवि राजकुमार चौहान का दोहा देखिऐ, चमचे से अच्छी भली चिमटे की तकदीर, नही कहाये बेवफा रहे तो संग फकीर।
बज्म के सचिव रफीक इशरत लिखते हैं, यह चेहरा है नूरानी के चांद सलौना है, कुदरत की कसौटी पर परखा हुआ सोना है।
वहीं शकील नश्तर ने कहा, रोशनी मुफ्त भी मिलती है तो लौटाता है, कितनी खुद्दारी और गैरत ये कमर रखता है।
राधेश्याम परदेशी को देखें, किनारों को कभी मिलते नहीं देखा, मौजे समंदर कभी थमते नहीं देखा।
भगवान सिंह यादव ने कहा, कभी हस्ते कभी रोते कभी हम गीत गाते हैं, जमाने के हमारे दिन सहज ही बीत जाते हैं।
वहीं साजिद अमन लिखते हैं, खुश रहेगा वो कैसे दुनिया में , बेकसूरों को जो सताएगा।
रामकृष्ण मौर्य लिखते हैं, ये वक्त ना लौटेगा कुछ काम करो यारों, बैठे ही रहोगे तो बस वक़्त का खोना है।
वहीं इरशाद जालोनबी ने कहा, करेंगी हमें याद नस्लें हमारी, चलो हम लगाएं शजर दोस्ती का।
वहीं विनोद अलबेला ने कहा, मत मेटो ये सोना धरती पर्वत पर चढ़ जाओ, खड़े हुए जो बंजर बनकर उनको भी लहराओ।
अध्यक्षीय उद्बोधन के बाद सत्तार शिवपुरी ने सभी साहित्यकारों का आभार प्रकट करते हुए शुक्रिया अदा किया
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